राजिम। अहिरवारा दुर्ग से पहुंचे सूर झंकार लोक कला मंच के संचालिका एवं लोक गायिका आरती बारले ने पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा कि पिछले 15 वर्षों से लगातार राजिम के महोत्सव मंच में कार्यक्रम देने की इंतजार रही है जो आज सफल हुआ है। उन्होंने बताया कि हमारा मुख्य उद्देश्य लुप्त हो रहे पारंपरिक गीतों को उभारना है। पिछले 35 सालों से हमारी संस्था लगातार संचालित है। हम कम हो रहे बांस गीत तथा सुआ, करमा, ददरिया को दर्शकों के बीच लाना चाहते हैं ताकि आने वाले पीढ़ी को बताने की जरूरत ना हो कि इसे बांस गीत कहते हैं। हमारी संस्कृति को हम जब तक दूसरे को नहीं बताएंगे, पता कैसे चलेगा।
संस्कृति हर राज्य की पहचान होती है। श्रीमती बारले ने आगे बताया कि ममता चंद्राकर के गीतों को सुनती थी। मुझे लगा कि मैं भी इसी तरह से कार्यक्रम प्रस्तुत करूं और सोनहा धान लोक कला मंच से जुड़ गई। लगातार 15 साल तक काम किया उसके बाद अपनी खुद की टीम सुर झंकार में छत्तीसगढ़ी लोक कला संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए कमर कस लिया।

उन्होंने बताया कि सुटुंग गांव में मेरी पहली प्रस्तुति हुई। गोकुल प्रसाद मढ़रिया, मंसाराम बंजारे, छन्नूलाल, महेश वर्मा मेरे गुरु है। अभ्यास हर कलाकारों की जान होती है। हम कार्यक्रम देने से पहले एक बार प्रैक्टिस जरूर कर लेते हैं उसके बाद मंचों में पहुंचते हैं जिस तरह से बर्तन को मांगने पर उनमें चमक आती है ठीक उसी प्रकार से रियाज करने पर कार्यक्रमों में निखार आता है। मैंने छत्तीसगढ़ी फिल्म मया के छांव, विधवा आजा मोर मया के अलावा अनेक टेली फिल्म में काम किया है।
उन्होंने नए कलाकारों को मौका देने के प्रश्न पर कहा कि लगातार नए-नए लोक कला मंच खड़ा हो रहे हैं और कलाकार को मौका मिल रहा है। एक समय था जब ढूंढने पर भी कोई कलाकार नहीं मिलते थे आज परिभाषा बदल गई है। यह बहुत ही अच्छी बात है छत्तीसगढ़ कलाकार के क्षेत्र में समृद्ध हो रहा है। मेरी दिली तमन्ना है कि हमारी संस्था के माध्यम से छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति को प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के अलावा फॉरेन में भी चर्चा हो। मैं फिल्मों में अपने कैरियर नहीं बनाना चाहती बल्कि लोक कला मंच के माध्यम से छत्तीसगढ़ी संस्कृति को फोकस करना चाहती हूं।